कोरोना काल और भारतीय जीवन दर्शन की प्रासंगिकता----लेखिका डाॅ सबिता भन्डारी '

अभिव्यक्ति न्यूज़ : उत्तराखंड 

जब बच्चा गलती करता है तो बड़े होने के नाते हम डांट-डपट कर उसे उसकी गलती का अहसास कराते हैं ।इस डांट का उद्देश्य उसके भविष्य को सुधारना है ।हम उसके लिए चिन्तित हैं कि वह गलत आदतों से अभ्यस्त होकर अपने लिए परेशानियां न उत्पन्न कर लें ।हमारे मन में तनिक भी यह भाव नहीं होता है कि यह एक बच्चा है,तो हम उस पर हावी होकर उसे अपने बड़े होने का अहसास करायें ।अपितु हम उसके जीवन को संवारना चाहते हैं ताकि कल वह बड़े होकर अपने को व अपने देश को संवारें ।परन्तु जब इसी प्रकार बड़े गलतियाँ करते हैं,तो उन्हें कौन समझाएगा ?'शायद हम से अधिकतर यह सोचते होंगे  कि हम तो गलती करते ही नहीं और जो करते हैं,वह अपने आप भुगतेंगे ।                                        चिन्तन कीजिए अगर ऐसा  ही होता तो समय समय पर प्रकृति हमें यूं ही सजग और सचेत नहीं करती रहती ।वर्तमान समय का भयावह परिदृश्य कोरोना वैश्विक महामारी कहीं न कहीं यह चेतावनी है इस प्रकृति की कि हमें अपनी बेवजह अविवेकी हरकतों से बाज आ जाना चाहिए,नहीं तो इस धरती से हमारा नामों निशा मिट जायेगा ।अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हमें अपने पुराने जीवन के तौर-तरीकों को फिर से अपनाने की मुहिम तेज करनी होगी ।आधुनिकता और विकास की दौड़ में हम अपने भारतीय जीवन दर्शन और रोजमर्रा  की दिनचर्या जो कि हमें  अपने पर्यावरण और प्रकृति  संरक्षण की सीख देती है उसी आधार भूत तत्व की उपेक्षा कर बैठे हैं ।हमारे रीतिरिवाज,तीज-त्यौहार,खान-पान,रहन-सहन,सारी की सारी जीवन पद्धति इसी सिद्धांत पर आधारित रही है कि प्रकृति ही सबको जीवन देती है।यहां तक कि हमारे तीज-त्यौहार और रीति रिवाज भी मौसम और जलवायु द्वारा निर्धारित हैं और तदानुसार हमारा खान पान भी तय होता है ।हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति  में भी प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों को ही महत्व दिया गया है ।उन्हीं के अनुरूप चिकित्सा दी जाती है ।दैनिक जीवन में भी साफ सफाई और स्वच्छता को भी बडी सख्ती के साथ हमने अपने जीवन में स्वीकार किया है ।बाहर से आने पर हमेशा हाथ पैर धो कर ही घर के अन्दर प्रवेश किया जाता था।रसोईघर में नंगे पैर अथवा खडाऊं पहनकर भोजन बनाया जाता था ।हर किसी का जैसे छोटे बच्चे वृद्ध व बीमार इनका प्रवेश यहाँ वर्जित होता था ।कच्ची हल्दी,तुलसी,लौंग ,जीरा,अजाइवन ,इनसे बने काढ़े को पिया जाता था ।छांछ और बिभिन्न प्रकार के स्वास्थ्यवर्धक शरबतों का बहुत प्रचलन था।सुराही का प्रयोग ठन्डे पानी के लिए किया जाता था।जो शुद्ध होने के साथ ही पाचन क्रिया को भी दुरुस्त रखता था ।आंवले के मुरब्बे और च्यवन प्रास जैसे प्राचीन आयुर्वेदिक पौष्टिक रोगप्रतिरोधक मिश्रणों का बडे पैमाने पर उपभोग किया जाता था ।बहुधा बाजारों मे खान-पान का प्रचलन बहुत कम था।शरीर पर कई प्रकार के प्राकृतिक लेपों और तेलों को लगाकर नैसर्गिक रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न की जाती थी।शरीर को मजबूत बनाये  रखने के लिए कसरत व्यायाम खेल कूद कुश्ती इत्यादि का आयोजन किया जाता था ।लोगों का झुकाव आध्यात्मिक शक्तियों की ओर अधिक था।जिससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचरण होता था।चित्त शान्त और मन अवसाद से मुक्त रहता था।                जीवन को सुचारू रूप से नियंत्रित करने के लिए हमारे प्राचीन मनीषियों द्वारा जन्म से लेकर मृत्युके उपरान्त तथा सुबह से लेकर रात्रि -शयन तक जीवन को वैदिक मन्त्रों के सुरक्षा कवच द्वारा सुरक्षित रखने की अभूतपूर्व व्यवस्था की गई।जिससे शिक्षा स्वास्थ्य भोजन विवाह जन्म मरण आदि विभिन्न मन्त्रों और श्लोकों द्वारा सम्पन्न होते रहे ।हमारे वेदों,उपनिषदों,पुराणों और अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सिर्फ़ कल्याण नहीं अपितु परम कल्याण की भावना में विभिन्न श्लोकों और मन्त्रों में निहित हैं ।जिसमें सिर्फ पृथ्वी का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और अन्तरिक्ष में शान्ति और व्यवस्था की कामना करते हुए अनेक श्लोक विद्यमान हैं ।         वर्तमान कोरोना महामारी की विभीषिका को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड टम्प ने भी व्हाइट हाउस में सर्वधर्म समभाव की प्रार्थना करवाई और पृथ्वी पर शान्ति सुरक्षा व स्वास्थ्य की स्थापना हेतु हमारे वैदिक मन्त्रों का मंगलकारी उच्चारण करवाया ।जो इस बात की प्रमाणिकता को स्वीकार करता है कि भारतीय आध्यात्मिक वैदिक दर्शन विश्व में एक सुचारू,स्वस्थ व्यवस्था के संचालन की पुरजोर हिमायत करता है ।                                      हमारी सनातन पूजा प्रार्थना की अनेकों विधियां  जैसे-दिया और धूप जलाना,घन्टी बजाना,आरती गाना,हवन करना,समिधा में विभिन्न वातावरण शुद्धि की सामग्री शंख ध्वनि आम,केले व नीम की पत्तियों वंदनवार बनाना जो कि वायुशोधक होती है ।गोमूत्र एवम् गंगा जल का छिड़काव गोबर पूजन चरणामृत सेवन इत्यादि सभी पूजन क्रियायें हमारे अन्तर्मन और बाह्य वातावरण दोनों की शुद्धियों को ध्यान में रखकर ही रची गई है ।तुलसी केले पीपल आदि की पूजा करके इनमें जल चढ़ाना सूर्य और चन्द्रमा को अर्घ देना,नदियों की पूजा करना,गाय-बैल,सांप,हाथी,उल्लू,गरुड,मोर,चूहा इत्यादि जीव जन्तुओं को पूजकर हमारी वैदिक संस्कृति ने जीव श्रंखला के विभिन्न आयामों को जोड़ कर  प्रकृति  को सम्पूर्ण करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है और हमारी जीवन पद्धति को पर्यावरण के अनुकूल बनाकर उसे   प्रकृति के संरक्षण में सुरक्षित रखा ।   किन्तु विकास के पैमाने पर खरा उतरने की व्याकुलता  ने हमसे हमारा प्रमाणिक जीवन  सिद्धांत छीन लिया और वही आधुनिक कहलाने लगा जो पाश्चात्य  जीवन शैली में ढल गया ।ऊपर से आधुनिक की चकाचौंध  ने जीवन में शान्ति कम और भ्रान्तियाँ ज्यादा पैदा कर दी।हमारे जीवन के प्रत्येक दिन के अमूल्य 12 घन्टों में से लगभग 8-10घन्टे मोबाइल ने छीन लिए हैं ।निस्संदेह विज्ञान ज्ञान में वृद्धि करता है परन्तु इसका अत्यधिक प्रयोग घातक भी है ।इसलिये चिंतन मनन का जो हमारा बहुमूल्य समय मोबाइल ने हमसे चुरा लिया था और हमारा बचपन,हमारे खेल जो हमसे छीन लिए गये थे 'कहीं न कहीं कोरोना काल में हम उसे खोजने का प्रयास कर पाये ।अपने परिवार के साथ समय बिताने का सुख और भोजन का स्वाद दोनों के ही मजे हम ढ॔ग से ले पाये।कोरोना ने हमें फिर से अपने जीवन के पुराने तौर-तरीकों से जोड़ दिया और सामाजिक दूरी के साथ समाज के साथ चलने का नया मन्त्र दिया ।        कोरोना काल में  लाॅक डाउन के समय ने हमें आत्म मंथन का पर्याप्त अवसर प्रदान किया ।जब हमारी गति विधियां स्थैतिक थी तो उस समय प्रकृति अपने चरम पर थी।हवा पानी वनस्पति पशु और पक्षी अपने स्वाभविक रंग में रंगे हुए थे ।सभी प्रकार के सर्वेक्षणों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रदूषण बहुत कम हो गया है ।वायु शुद्ध हो गई।नदियों का जल स्वच्छ व निर्मल हो गया।सारा वातावरण नूतन रूप में शुद्ध व परिष्कृत रूप में दिखाई देने लगा ।ये सभी पर्यावरणीय सुधार इस ओर संकेत करते हैं कि सारे जीवन चक्र में मनुष्य ही एक अवान्छनीय कडी है जिसने अपने कार्यों से प्रकृति को पीडित और कुपित किया ।अपनी प्रगति की चाह में मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण के प्रति लापरवाह बना हुआ है ।इस कारण प्रकृति ने हमें  चेतावनी देते हुए सचेत करने का प्रयास किया है कि हमें अपनी बहुत  सी अनावश्यक आदतों का त्याग करना बहुत जरूरी है नहीं तो प्रकृति अभिशाप बनती जा रही है ।                                       हम सुधरेंगें तो प्रकृति स्वयं सुधर जायेगी ।अपने जीवन को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए जीवन की क्षण भंगुरता को समझना और महसूस करना जरूरी है ।संभवतः इसीलिए यह  वैश्विक महामारी हमें यह संदेश देने में सफल होती दिखती है कि जीवन बहुमूल्य है,और इसके मूल्यों को समझना जरूरी है ।           इसे सरलता,सादगी,सहजता,सजगता  और संयम से जियें  ये जीवन के वे नैतिक मूल्य हैं जो सदियों से  भारतीय जीवन दर्शन में निहित हैं और स्वयं की नहीं अपितु विश्व की भलाई की कामना करते हुए कहते हैं-सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे  सन्तु निरामया :सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःखभागभवेत। ओम शांति शांति  शांति ।।सभी सुखी हों,सभी निरोगी हों,सभी लोगों का मंगल हो और कोई भी दुःख का भागी न बनें ।लेखिका-डा0सविता भन्डारी । डी0फिल0।प्रवक्ता-अर्थशास्त्र । रा0इ0'का0सुमाडी ।जनपद-पौडी गढवाल ।
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